नरिंदरजीत कौर
अचानक घटी दुर्घटना में माँ-बाप की मृत्यु हो जाने पर, कुलजीत तो जैसे टूट ही गई थी। उसे अपना मायका तो खत्म हुआ लगता था।
माँ-बाप को गुज़रे अभी दो महीने भी नहीं हुए थे कि उसके दोनों भाइयों ने जायदाद का बँटवारा करने का निर्णय कर लिया। कुलजीत को भी सँदेश मिला। कुलजीत जानती थी कि जायदाद तो दोनों भाइयों ने आपस में ही बाँटनी है, उसे तो केवल दुनियादारी के लिए ही बुलाया गया है।
उसके पति हरजीत ने उसे समझाना चाहा, “देख कुलजीत, हमें कुछ नहीं चाहिए। ऊपर वाले का दिया सब कुछ है। और न ही मैं यह चाहता कि कोई तुझे अबा-तबा बोले। इसलिए में तो कहता हूँ कि तू मत जा।”
अपने पति की इस सोच के लिए कुलजीत ने मन ही मन वाहेगुरू का शुक्रिया अदा किया। पर वह देखना चाहती थी कि माँ-बाप की खून-पसीने की कमाई से खड़े महल की दोनों भाई कैसे काट-छांट करते हैं।
कुलजीत खामोशी से दोनों भाइयों को सब कुछ बाँटते हुए देखती रही। उन्होंने चम्मच-चिमटे तक बाँट लिए गए। दोनों भाइयों ने अपना-अपना हिस्सा सँभाल लिया। अंत में कुछ अनावश्यक सामान कुलजीत के हिस्से में आया। उस सामान को भरे मन से बाँहों में समेट कर वह घर लौट आई।
“यह क्या है?” हरजीत ने हैरान होते हुए पूछा।
“यह है मेरा हिस्सा।”
इतना कह कुलजीत ने अपनी शाल में से अपने माँ-बाप की तस्वीर निकाली। उसने काँपते होठों से उसे चूमा और मेज पर रख, फूट-फूट कर रो पड़ी।
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1 comment:
कडवा सच यही होता है।
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