Monday, 27 June 2011

रुका हुआ व्रत


अरतिंदर संधू

नन्हीं कृति बार-बार रसोई के चक्कर लगा रही थी। वहाँ बन रहे हलवे-पूरी व अन्य पकवानों की महक उसे बेचैन कर रही थी। लेकिन उसकी माँ ममता उसे खाने को कुछ नहीं दे रही थी। वास्तव में ममता ने नवरात्रों के व्रत रखे हुए था और आज अष्टमी के दिन कंजकों को भोजन करा, चुनरी-खिलौने आदि देकर ही व्रत की पूर्ति होनी थी।
अधेड़ उम्र की औरतों ने उसे सलाह दी थी कि वह ग्यारह कन्याओं को खुश कर माता से पुत्र का वर माँगे। कृति छः वर्ष की हो गई थी। इस बीच चार अजन्मी कन्याओं को अपने घर आने से पहले ही वापस भेज चुकी थी, चाहे भरे मन से ही। इस बार व्रत द्वारा माता को खुश कर पुत्र प्राप्त कर लेने की उसे पूरी उम्मीद थी।
उसने आसपास के घरों में कंजकों की गिनती की, पर ग्यारह किसी भी तरह पूरी न हुईं। हार कर ममता की सास बोली, चल, पाँच कंजके ही बैठा ले, माता रानी सब जानती है।
ममता सुबह से ही जान-पहचान वाले घरों में चक्कर लगा रही थी। सभी घरों में राशन-स्कीम की तरह, लड़कियों के पैदा होने पर पाबंदी लगा दी गई थी। बहुत कोशिश के बाद , चार लड़कियाँ ही नज़र आईं और पाँचवी उसकी कृति। साल में दो बार ही ऐसा अवसर आता है, जब कन्याओं की माँग बढ़ जाती है।
ममता जब लड़कियों को बुलाने गई तो एक को तो तेज बुखार था। दूसरी नानी के घर गई थी। अन्य दो को आने के लिए कह, ममता प्रतीक्षा में घर पहुँची। उसे दरवाजे पर कृति उत्साह से भरी मिली और उसे रसोई की तरफ खींच ले गई। रसोईघर के दरवाजे पर पहुँच कर बोली, मम्मी, कंजकें आ गईं, अब पूरी दो।
कृति ने चार आसनों पर अपनी चार गुड़ियां सजाई हुई थीं और पाँचवे आसन पर स्वयं बैठ कर भोजन की प्रतीक्षा करने लगी।
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