Thursday, 11 November 2010

हवा का झोंका

गुरचरण चौहान

विदेश से लौटा शेखर भावुक होकर दिल्ली से रेल के दूसरे दर्जे के डिब्बे में सवार हो गया। डिब्बे में बेहद गर्मी और घुटन थी। दो-तीन स्टेशन निकल जाने के बाद, टी.टी.ई. से सम्पर्क कर वह ए.सी. डिब्बे में जा बैठा। ए.सी. डिब्बे में बैठकर उसे लगा जैसे वह स्वर्ग में आ गया हो।
दो-तीन स्टेशन गुजरने के बाद उसे महसूस होने लगा, जैसे यहाँ अलग ही तरह की घुटन हैचुपचाप अखबार पढ़ रहे लोग…अपने आप में मस्त, एक दूसरे को घूर रहे चेहरे…एक बोझिल-सा वातावरण। उसके कान तो अपनी माँ-बोली के मिश्री जैसे बोल सुनने को तरस रहे थे। उसे लगा जैसे वह ए.सी. डिब्बे में नहीं, फिर से विदेश में आ गया हो।
एक स्टेशन आया। गाड़ी रुकी। वह ए.सी. डिब्बे से छलांग लगा दूसरे दर्जे के डिब्बे में जा बैठा। उसके व्यक्तित्व को देख, खिड़की से सटे बैठे गाँव के एक मुसाफिर ने उठकर उसे जबरन सीट पर बैठा दिया। उस अधेड़ ग्रामीण मुसाफिर ने अपने थैले से एक मुट्ठी मूँगफली उस की तरफ बढ़ाई। उसने मूँगफलियाँ दोनो हाथों को जोड़ प्रसाद की तरह लीं। आसपास बैठी सवारियाँ मूँगफली पहले से ही खा रही थीं। उसने अनुमान लगाया, यह इस ग्रामीण की ओर से बाँटा गया प्रसाद है।
सीट पर बैठ, खिड़की से कोहनी टिका, उसने कमीज का कालर गरदन से पीछे किया। अब उसने महसूस कियाहवा के झोंके उसकी गरदन के आसपास स्पर्श कर रहे थे।
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