Thursday, 18 November 2010

रिश्ता

डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति

मोगा से रास्ते की सवारी कोई न हो, एक बार फिर देख लो।कहकर कंडक्टर राम सिंह ने सीटी बजाई और बस अपने रास्ते पड़ गई।
बस में बैठे निहाल सिंह ने अपना गाँव नज़दीक आते देख, सीट छोड़ी और ड्राईवर के पास जाकर धीमे से बोला, डरैवर साब जी, जरा नहर के पुल पर थोड़ा-सा ब्रेक पर पाँव रखना।
क्या बात है? कंडक्टर की बात नहीं सुनी थी?ड्राइवर ने खीझकर कहा।
अरे भई, जरा जल्दी थी। भाई बनकर ही सही। देख, तू भी जट और मैं भी जट। बस जरा-सा रोक देना।निहाल सिंह ने गुजारिश की।
ड्राइवर ने निहाल सिंह की ओर देखा और फिर धीमे से कहा, मैं कोई जट-जुट नहीं, मैं तो मजबी हूँ।
निहाल सिंह ने थोड़ा रुककर फिर कहा, तो क्या हुआ? सिक्ख भाई हैं हम, वीर(भाई) बनकर रोक दे।
ड्राइवर इस बार जरा मुस्कराया और बोला, मैं सिक्ख भी नहीं हूँ, सच पूछे तो।
तुम तो यूँ ही मीन-मेख में पड़ गए। आदमी ही आदमी की दारू होता है। इस से बड़ा भी कुछ है।
जब निहाल सिंह ने इतना कहा तो ड्राइवर ने गौर से उसे देखा और ब्रेक लगा दी।
क्या हुआ?कंडक्टर चिल्लाया, मैने पहले नहीं कहा था, किस लिए रोक दी?
कुछ नहीं, कुछ नहीं। एक नया रिश्ता निकल आया था।ड्राइवर ने कहा। निहाल सिंह तब तक नीचे उतर चुका था।
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