Saturday, 25 July 2009

कड़वा सच


दर्शन जोगा


दुलारी, अब नहीं मुझसे बसों में चढ़ा-उतरा जाता। ड्यूटी पर जा कर बैठना भी मुश्किल लगता है। वैसे डाक्टर ने भी राय दी है– भई, आराम कर, ज्यादा चलना फिरना नहीं। बेआरामी से हालत खराब होने का डर है।

रब्ब ही बैरी हुआ फिरता है। ’गर लड़का कहीं छोटे-मोटे धंधे में अटक जाता तो किसी न किसी तरह टैम निकालते रहते।शिवलाल की बात सुन कर पत्नी का दुख बाहर आने लगा।

मैंने तो रिटायरमैंट के कागज भेज देने हैं, बहुत कर ली नौकरी। अब जब सेहत ही इजाजत नहीं देती…।शिवलाल ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा।

वह तो ठीक है, पर…पत्नी ने भीतर का फिक्र ज़ाहिर करते हुए कहा।

पर-पुर का क्या करें…? मैं तो खुद ही नहीं चाहता था।

मैं तो कहती हूँ कि धीरे-धीरे यूँ ही जाते रहो, तीन साल पड़े हैं रिटायरमैंट में। क्या पता अभी क्या बनना है। रब्ब ने अगर हम पर पहाड़ गिरा ही दिया, बाद में नौकरी तो मिल जाएगी लड़के को, बेकार फिरता है…।

यह सुनते ही शिवलाल के चेहरे पर पीलापन छा गया।

पत्नी की आँखों से टप-टप आँसू गिरने लगे।

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5 comments:

Unknown said...

Rachna bahut achhi lagi, badhai.

संगीता पुरी said...

यह कथा पहले भी पढ चुकी हूं .. दिल को छू लेने वाली है !!

Unknown said...

बड़ी उम्र के लोगों की परेशानी तथा बेरोजगारी को दर्शाती अच्छी रचना!

Unknown said...

गरीब परिवारों की दुर्दशा को दर्शाती श्रेष्ट रचना।

M VERMA said...

मार्मिक