अणमेश्वर कौर
“कब आया विलायत से, भई टहल सिंह?”
“हो गए कोई पंद्रह-बीस दिन, अपना ब्याह करवाने आया था। अब तो कल सुबह की फ्लाइट से जाना है।”
“वाह भई वाह! टहल सिंह, जहाँ तक मुझे याद है, यह तेरी तीसरी शादी है,” बात को जारी रखते हुए सरवण पूछने लगा, “क्या बात है, तुम जल्दी-जल्दी शादी किए जा रहे हो, यह तो बताओ कि पहली दो का क्या हुआ?”
“होना क्या था, पहली ब्याह के बाद इंडिया में तो ठीक-ठाक रही, पर जब विलायत गई तो तलाक हो गया। फिर दूसरी बार गाँव की गरीब लड़की से ब्याह किया। उसके भी गोरों की धरती पर पाँव पड़ते ही पंख लग गए। मेरे से झगड़ पड़ी…कहे, तू भी मेरे साथ काम कर घर का…रोज लड़ती थी ससुरी…बस कुछ महीने बाद ही हो गया तलाक। रहती हैं दोनों अपने-अपने कौंसल के फ्लैटों में।”
“लेकिन यह बात तो बुरी है, टहल! माँ-बाप पता नहीं कितनी रीझों से पालतें-पोसतें हैं और विलायत में जाकर कुछ का कुछ हो जाता है।”
टहल सिंह ने दाढ़ी-मूछों को सँवारते हुए जवाब दिया, “ओ सवरणे, तुझे क्या समझ है वहाँ की। दुख-सुख उन्हें क्या होना है, तलाक लेकर जितनी बार चाहें ब्याह कराएँ। यह क्या कम है कि गाँव से निकल कर विलायत में ठौर मिल गई…मैं तो पूरी तरह पुण्य का काम कर रहा हूँ…नहीं तो गाँव में ही उमर गल जानी थी उनकी!” फिर गले को साफ करते हुए कहने लगा, “भई देख, इतनी दूर से किराया-भाड़ा खर्च कर आता हूँ…नहीं तो वहाँ क्या लड़कियों की कमी है…बहुत मिल जाती हैं…इसलिए मैं तो ले जाकर पुण्य का काम ही कर रहा हूँ।”
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2 comments:
हा हा-बहुत पुण्य का काम!
ye punya kuchh zyada hi puneet hai !
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