Tuesday, 14 July 2009
खून के व्यापारी
अमरजीत अकोई
“डाक्टर साब, यह लो पर्ची और दवाइयाँ दे दो।” फटेहाल रिक्शा-चालक ने कैमिस्ट की दुकान पर पर्ची पकड़ाते हुए कहा।
“भई पैसे दो, अब ऐसे दवाई नहीं मिलती।”
“तुम दवाई दो जल्दी से, मैं अभी आकर खून की बोतल दे देता हूँ।”
“न भई न, खून का धंधा तो बंद कर दिया। सरकार कहती है, बाहर से लिए खून से बीमारियाँ होती हैं। इसलिए अब जल्दी से कोई खून नहीं लेता। और अब ये क्लबों वाले लड़के बहुत खून दान कर रहे हैं।” कैमिस्ट ने उसे समझाते हुए कहा।
“डाक्टर साब, मुझे कोई बीमारी नहीं है। सख्त मेहनत से बनाया हुआ खून है। ज्यादा करते हो तो पहले मेरा खून टैस्ट कर लो।”
“न भई, साफ बात है, हमने तो यह धंधा बिल्कुल ही बंद कर दिया है। पैसे निकालो, दवाई ले लो।”
“डाक्टर साब, अगर मेरे पास पैसे होते तो इतना क्यों कहता। मैं आपका पैसा-पैसा चुका दूँगा। मेरा बेटा दवाई के बिना मर जाएगा।” उसने मिन्नत की।
“न भई, यहाँ तो रोज तुम्हारे जैसे ही आते हैं।”
“अच्छा जनाब, आपकी मर्जी!” वह टाँगें घसीटता अस्पताल की ओर चला गया जैसे सख्त बीमार हो।
“और फिर कैसी चल रही है दुकानदारी?” पास ही बैठे कैमिस्ट के जीजा ने पूछा।
“यह जब से खून में एड्स के कणों का हल्ला मचा है, हमारा तो धंधा ही चौपट हो गया। इस जैसे से खून की बोतल कढ़वा लेते थे, आगे बेच कर सीधा डेढ़ सौ बच जाता था। अगर कोई खून बदले दवाइयाँ ले जाता तो दवाइयों से भी कमाई होती। और अगर कोई मोटी मर्गी फंस जाती तो पाँच सौ भी बच जाते।” कैमिस्ट ने अपने जीजा के सामने सारा भेद खोल दिया।
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3 comments:
इस धन्धे को भी एड्स की बीमारी लग गयी.
क्या क्या रास्ते अपनाते हैं लोग चंद रुपये कमाने के लिए.
बहुत अच्छा लिखा है आपने । भावपूर्ण विचारों की कलात्मक अभिव्यक्ति सहज ही प्रभावित करती है । भाषा की सहजता और तथ्यों की प्रबलता से आपका शब्द संसार वैचारिक मंथन केलिए भी प्रेरित करता है।
मैने अपने ब्लाग पर एक लेख लिखा है-शिवभक्ति और आस्था का प्रवाह है कांवड़ यात्रा-समय हो तो पढ़ें और कमेंट भी दें-
http://www.ashokvichar.blogspot.com
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