Saturday, 11 February 2012

पेंशन

हरजिंदर कौर कंग

तीन वर्ष हो गए थे, छिंदर को विधवा-पेंशन के लिए बैंक के चक्कर लगाते। अभी तक एक बार भी पेंशन नहीं मिली थी। आज फिर वह बैंक में खड़ी थी। वहाँ उसे मुहल्ले में रहने वाली ठेकेदार की पत्नी मिल गई। यद्यपि दोनों एक ही मुहल्ले में रहती थीं, लेकिन दोनों का आपस में अधिक मेल-मिलाप नहीं था।
सुना कैसे हो रहा है गुज़ारा?ठेकेदारनी बोली।
बस टैम पास कर रही हूँ। गुजारा कैसा, बहन जी।
न, बेटा नहीं करता कुछ? वाहेगुरू की कृपा से, जवान हो गया अब तो।
कारखाने में जाता है काम पर। दाल-रोटी चल जाती है।
तू भी कोई काम-वाम ढूँढ़ लेती।
मैं भी सिलाई-कढ़ाई करके थोड़ा बहुत कमा रही हूँ। रो-रोकर निगाह कम हो गई। सूई में धागा ही नहीं डलता अब तो।छिंदो ने ठेकेदारनी से कहा, आप सुनाओ बहन जी! परिवार ठीक-ठाक? बाहर वाले बेटे का आया कोई फोन-फून?
सब ठीक है। फोन तो आता रहता है। बेटा हुआ है उसके। और छोटे ने भी इंजनियरिंग कर ली है।
फिर तो दोहरी बधाई हो बहन जी!
तुझे भी वाहेगुरू खुशियां बख्शे। अब तो बस किसी चीज की कमी नहीं, बस सेहत ही कुछ ढ़ीली रहती है।
क्या हुआ सेहत को?
आग लगे इन घुटनों से नहीं हिला जाता। छः महीने की पेंशन जमा हो गई, लेने नहीं आया गया।
कैसे आए फिर?
ठेकेदार सा'ब आप आए हैं साथ, गाड़ी पर लेकर…अच्छा, वे बाहर इंतजार कर रहे होंगे मेरा। तू भी पता कर ले अपनी पेंशन का, आई कि नहीं। इतना कह ठेकेदारनी बाहर निकल सफारी गाड़ी में सवार हो गई।
आज फिर छिंदो खाली हाथ बैंक से निकली और रिक्शा की तलाश करने लगी।
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