गुरचरण चौहान
मैं और रणजोध सिंह निहंग हमारे गांव के साथ लगते गाँव फकरसर पिण्डी साहिब में लगते बैसाखी के मेले में पहुँचे ही थे कि समाधियों की ओर शोर-शराबा मच गया। जब मैं तथा रणजोध सिंह समाधियों की ओर गए तो पता लगा कि कुछ आवारा लड़कों ने माथा टेक रही लड़कियों से कोई गलत हरकत की थी। रणजोध सिंह आपे से बाहर हो गया, “पकड़ लो इन मुस्टंडों को…कुत्ते के बीज…ठहरो तुम्हारी…।”
रणजोध ने कमरबंद कमर पर कस लिया था। लड़के अपने मोटर-साइकिल पर बैठ भाग लिए थे।
“चल छोड़, हमने क्या लेना…।” मैंने निहंग का कड़े वाला हाथ पकड़ लिया था।
हम सारा दिन मेले में घूमते रहे। निहंग के माथे पर पड़ी त्योरियां सारा समय विष घोलती रहीं।
दिन ढ़ले तालाब की तरफ फिर शोर मचा। निहंग मुझे भीड़ में छोड़ तालाब की ओर दौड़ गया। भीड़ से बचता-बचाता मैं किसी तरह शोर-शराबे वाली जगह पहुँचा। नहाने वाली जगह पर एक निहंग ने किसी औरत से अश्लील हरकत की थी। नंगी तलवार ऊपर उठा ललकारे मारता रणजोध सिंह, उस निहंग के चारों ओर चक्कर लगा रहा था।
मैंने फिर रणजोध की तलवार वाली बाँह पकड़ ली, “छोड़ परे निहंग, हमने क्या लेना…!”
“इन पाखंडियों ने ही तो पंथ को बदनाम किया है…छोड़ दे मुझे मास्टर…अगर कलगीधर दशमेश-पातशाह भी ‘हमने क्या लेना’ वाली बात सोचते तो आज हमारा इतिहास कुछ और ही होना था।”
मुझे लगा जैसे मेरी रूह मुझमें से मनफ़ी हो गई है।
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1 comment:
sahi farmaya ji.....
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