हरजिंदर कौर कंग
प्रीती अपनी बीमार सास को दवाई दिलाने अस्पताल लेकर जा रही थी। बस में सिर्फ एक ही सीट खाली थी। उसने सीट पर अपनी सास को बैठा दिया और स्वयं खड़ी हो गई। बस की सभी मर्द सवारियों की नज़रें उस पर टिकी हुई थीं। वह सिर झुकाए बुत बनी खड़ी थी।
देखते-देखते बस खचाखच भर गई। पाँव रखने को भी जगह न बची। प्रीती जाल में फंसी मछली की तरह तिलमिला रही थी। कभी पीछे तो कभी आगे, कभी इधर तो कभी उधर, वह अपने को बचाने की असफल कोशिश कर रही थी। मुरझाई हुई सास को सहारा देना भी उसके लिए कठिन हो रहा था।
‘किस सवारी से कहूँ– भाई साहब! बहन जी! मुझे बैठने के लिए जगह दे दो।’ वह मन ही मन सोचती। उसे पता था कि जहाँ खड़ा होना ही मुश्किल में डाला जा रहा है, उसे बैठने को कौन कहेगा। उसे अपनी साँस घुटती-सी लगी। चक्कर आने शुरू हो गए।
“बी जी! उठो, किसी और साधन से चले चलते हैं। मुझ से और सहन नहीं होता।”
माथे को हाथ से दबाते हुए, सास की बाँह पकड़े प्रीती बस से बाहर आ गई। ललचाई नज़रें झुक गईं। उस से चिपटी जोंकें उतर गईं।
आटो-रिक्शा में बैठते ही उसने पर्स खोल कर पैसे गिने, वापसी का किराया भी बचेगा या…?
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7 comments:
निशब्द हूँ।
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (30-5-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
maun hun ... kahun to kya , saath hun
ओह ..बहुत घुटन भरी ..नज़रें ही जोंक बन जाती हैं ...
बहुत ही सार्थक और मार्मिक लेख काश लोगों के मानस पटल पर ये दृश्य घर बना ले -सटीक नजारा है -अगर बुढ़िया माँ या सास साथ नहीं हो तो उसको पास बिठाने को बहुत लोग तैयार हो जाते हैं -अन्यथा कौन देखता है की महिला खड़ी है
बधाई हो
शुक्ल भ्रमर ५
एक शर्मनाक मानसिकता को बहुत सटीकता से व्यक्त किया है..बहुत प्रभावी अभिव्यक्ति..
ओह!बहुत शर्मनाक|
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