वह सहज रूप से चला जा रहा था।
सामने सड़क पर पड़े पैसे उसे नज़र आए तो चारों ओर से चौकस हो, पैसे उठा उसने अपनी मुट्ठी खोली तो देखा, दो रुपए थे। एक-एक के दो नोट।
क्षण भर के लिए वह खुश हुआ और रुपए जेब में डाल कर आगे चल पड़ा। फिर उसे जैसे कुछ याद गया। उसकी रफ्तार पहले से धीमी हो गई।
“अगर कहीं ये दोनों दस-दस के नोट होते तो बात न बन जाती।” यह सोचकर वह उदास हो गया।
“कम से कम कुर्ता-पायजामा ही…अगर कहीं सौ-सौ के होते तो… पौ-बारह हो जाती…वाह रे भगवान, जब देने ही लगा था तो बस दो ही!…तू देता तो है, पर हाथ भींचकर। कभी एक साथ दे दे बीस-पचास हजार…हम भी जिंदा लोगों में हो जाएँ…।”
सोचते-सोचते उसने अपना हाथ पैंट की जेब में ऐसे डाला जैसे रुपए वास्तव में ही दो से बढ़ गए हों। मगर उसका कलेजा धक से रह गया।
उसका हाथ जेब के आरपार था। दो रुपए फटी जेब से कहीं गिर गए थे। ‘बस’ वह रुआँसा हो गया, “वे भी गए साले।आज की रोटी का ही चल जाता।”
वह फटी जेब में हाथ डाल वहीं खड़ा हो गया और चारों ओर ऐसे निगाह डाली जैसे अपना कुछ खोया हुआ ढूँढ रहा हो।
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1 comment:
अदमी के सोचने से क्या होता है। होता वही है जो मंजूरे खुदा होता है। बढिया। शुभकामनायें।
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