Monday, 12 July 2010

सेवक


गुरदीप सिंह पुरी

मैं फिरोज़पुर शहर के एक चौराहे के कोने में बनी मुसलमान फ़कीर की मज़ार पर माथा टेकने गया। सुना था कि यहाँ सच्चे मन से जो कोई भी आता है, उसकी सब मुरादें पूरी हो जाती हैं। मैंने पाँच रुपये का प्रसाद लिया और माथा टेककर सेवा कर रहे मिजावर को पकड़ा दिया। मैं प्रसाद लेकर अभी मुश्किल से पाँच-छः कदम ही बाहरी दरवाजे की ओर बढ़ा था कि मज़ार की सफाई कर रहे एक सेवक ने मुझे रोक लिया।
सरदार जी मेरी विनती सुनकर जाना।
बता भाई?”
मैं यहाँ पिछले आठ साल से सेवा कर रहा हूँ। मेरी घरवाली की दाईं छाती में कैंसर है। बहुत इलाज करवाया सरदार जी, पर आराम नहीं आया। अब डॉक्टर कहते हैं कि चंडीगढ ले जाओ। ले तो जाएँ सरदार जी, पर मेरे पास तो इस मज़ार पर माथा टेकने को पाँच पैसे भी नहीं हैं। आप ही कोई हीला-वसीला करो सरदार जीआपके बच्चे जीएं
वह बोलता गया। मैं मज़ार पर श्रद्धा से आने पूरी होने वाली मुरादों तथा आठ साल से सेवा कर रहे सेवक की भावनाओं उसके माँगने के ढंग के बीच के अंतर को टटोलता पता नहीं कब मज़ार का बाहर वाला दरवाजा पार कर गया था।
मुझे बाहर जाता देख वह मज़ार के फर्श पर फिर से झाड़ू लगाने लग गया।
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2 comments:

Udan Tashtari said...

ऐसे में क्या कहा जाये...उसकी सेवा को कम आंके या आस्था को या भावना को या परम पिता की शक्ति को.शायद जो कर्म भोग हो वो नहीं बदलता.

RAJNISH PARIHAR said...

शायद कई बार भगवान भी भक्त की परीक्षा लेते है..!बहुत अच्छी लघुकथा....