जसबीर ढंड
“शिंदर, तू कल क्यों नहीं आई?”
“जी, कल मेरी माँ बहुत बीमार थी।”
“क्यों क्या हुआ तेरी माँ को?”
“जी, उसकी न बगल के नीचे की नस भरती है। कल मानसा दिखाने जाना था।”
“दिखा आए फिर?”
“नहीं जी।”
“क्यों?”
“जी, कल पैसे नहीं मिले।”
“फिर?”
“जी, आज लेकर जाएगा मेरा बापू…।”
“आज कहाँ से आ गए पैसे?”
“जी, जमींदारों के से लाया है उधारे…।”
पहली कक्षा में पढ़ रही शिंदर अपने अध्यापक से सयानों की तरह बातें करती। सांवला रंग, मगर सुंदर नैन-नक्श। अपनी उमर के बच्चों से समझदारी में दो-तीन वर्ष बड़ी। उसकी माँ ने स्वयं तंगी भोग शिंदर को स्कूल बैठाया ताकि चार अक्षर सीख जाए।
अगले दिन वह एक घंटा देर से स्कूल पहुँची।
“लेट हो गई आज?” अध्यापक ने पूछा।
“जी, माँ आज फिर ज्यादा तकलीफ में थी…रोटियाँ पका कर आई हूँ…और पहले सारा घर संभाला…।”
अध्यापक उसके मुख की ओर देखता रहा, “तू रोटियाँ पका लेती है?”
“हाँ जी! सब्जी भी बना लेती हूँ…मेरी माँ लेटी-लेटी बताती रहती है, मैं बनाती रहती हूँ…।” लड़की के चेहरे से आत्मविश्वास झलक रहा था।
“आज तेरी माँ ने तुझे घर रहने को नहीं कहा?”
“न जी!…आज तो माँ मेरे बापू को कह रही थी–अगर मैं मर गई तो शिंदर को पढ़ने से न हटाना।”
कक्षा में चालीस-पचास बच्चों के बावजूद अध्यापक के भीतर एक खामोशी छा गई। सुन्न-सा हुआ वह लड़की की ओर देखता रहा…कितने ही छोटे-छोटे ईसा सूली पर लटक रहे हैं।
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6 comments:
bahut umda, par kahani hai. yatharth nahi..
उफ्फ!! मार्मिक!
बहुत सुन्दर कहानी है ढंड जी को बधाई । आपका धन्यवाद्
"मार्मिक कहानी...,पर कहानी का अंत आशावादी होना चाहिए,मेरे हिसाब से शिंदर की माँ ठीक हो गई होंगी..."
प्रणव सक्सैना amitraghat.blogspot.com
very touching indeed ! i have come here first time and will say that itz a great blog !
बहुत सुन्दर कहानी है बधाई । आपका धन्यवाद्
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