Saturday, 6 February 2010

पलाल का सेंक





कारखाने की भट्टियों को चलाने के लिए पलाल जलाया जाता था। जब से यह शराब का कारखाना लगा, तब से ही भंता अपनी भैंसा गाड़ी में पलाल ढो रहा था। सारे सीजन में मुश्किल से पाँच-सात हजार ही बनते। बहुत जोर मारता, लेकिन भैंसे और गाड़ी ने तो अपनी ही चाल चलना था। घर में सौ खर्चे थे।
अड़ोस-पड़ोस के ट्रैक्टरों वाले, फेरे लगा-लगा के मालामाल हो गये थे। यह सब देख भंते को अपना-आप खेत में खड़े बिजूके जैसा लगने लगता और भैंसे की रफ्तार बढ़ाने के लिए वह अंधाधुंध सांटा चलाता।
उसके साथ मिट्टी हुई पत्नी को कभी ढंग का वस्त्र नसीब नहीं हुआ था। लेकिन जब ट्रैक्टर खरीदने की बात हुई तो उसने सारे गहने सामने लाकर रख दिए और बोली, ये मेरे किस काम के हैं।
बेटे को कमाई करने के लिए दुबई भेजने की चाह को वह हर बार अगले सीजन पर टाल देता। घरवाली के जेवर व थोड़ी-सी जमीन गिरवी रख, पैसे बैंक में जमा करवा, वह कर्जा लेकर ट्रैक्टर ले आया। ट्रैक्टर खरीदने के बाद उसने मन बना लिया कि जवान बेटी की शादी, घर और पत्नी की शक्लसूरत संवारने के लिए वह डट कर मेहनत करेगा तथा सभी धोने धो देगा।
धान की कटाई से पहले ही उसने लोगों से बात कर ली थी। बेटा भी इस बार रीझ पूरी होते देख पिता के कंधे से कंधा मिला कर काम करने को तैयार था। इस बार भाव भी ज्यादा निकला था। वह मन ही मन खुश था कि बैंक की किश्तें समय से चुका देगा।
धान की कटाई शुरु हो चुकी थी। पलाल की पहली ट्राली लादकर वह खुशी-खुशी कारखाने के दरवाजे तर पहुँचा तो गेटकीपर ने सहज ही कहा, इस बार पलाल की जरूरत नहीं।
क्यों?
सरकार ने प्रदूषण रोकने के लिए बिजली से चलने वाले बायलर लगवा दिए हैं…।
हैं! भंते को ऐसा लगा जैसे वह कारखाने की भट्टी के सेंक से पूरे का पूरा जल गया हो।
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5 comments:

Udan Tashtari said...

मार्मिक कथा.

Randhir Singh Suman said...

nice

श्यामल सुमन said...

अच्छे भाव की अभिव्यक्ति।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com

निर्मला कपिला said...

सुन्दर कहानी है आज मशीनों ने कितने लोगों का रोज़गार छीन लिया है। ऐसे लोगों के मार्मिक जीवन पर सटीक लघुकथा। कर्मसिंह जी को शुभकामनायें

अनिल कान्त said...

यह अपने आप में एक बेहतरीन कहानी है . यही तो एक ग़रीब का दुख है.