मंगत कुलजिंद
“शुक्र है भगवान का, बच्चे को समय पर डाक्टरी सहायता मिल गई,
नहीं तो पता नहीं…” मित्र का धन्यवाद करते
हुए बलदेव घर से अस्पताल तक के सफर को याद कर काँप उठा।
बलदेव के बारह वर्ष के
बेटे को अचानक दौरा पड़ गया था। वह बेटे को कार में डाल पत्नी समेत अस्पताल की और
भागा। मुख्य सड़क पर आकर गाड़ी भीड़ में फँस गई। पीछे मुड़ने को भी राह नहीं था। बहुत
हार्न बजाया, लोगों की टांगों-टखनों से गाड़ी का बंपर भी लगा दिया, लोगों को
गालियाँ भी दीं, पर किसी ने राह नहीं दिया। पीछे सीट पर बेटे को लिए बैठी पत्नी रो
रही थी और ‘जल्दी चलो, जल्दी चलो!’ की गुहार लगा रही थी।
मुख्य सड़क के बीच में
बनी ‘नीम वाले बाबे की समाधि’ पर लोगों की भारी भीड़ जुटी थी। कुछ लंगर की रोटी
खाने के लालच में, नौजवान खरमस्तियाँ करने को और औरतें अधिकतर धन-दौलत,
सुख-सुविधाएँ व औलाद की प्रप्ति की तमन्ना ले कर आईं थी। प्रत्येक वीरवार को यहाँ
यूँ ही भीड़ जुटती है। पहले-पहल नगर निगम ने दो-तीन बार इस समाधि को यहाँ से हटाने
की कोशिश की थी। पर कुछ लोगों के विरोध व राजनैतिक लोगों के दखल के कारण सफलता
नहीं मिल पाई।
इस मुसीबत की घड़ी में
उधर से गुज़र रहे बलदेव के मित्र ने लोगों को इधर-उधर कर कार के लिए राह बनाया तथा
बच्चे को अस्पताल पहुँचाया।
“यार…लोग तो वैसे ही पागल
हुए फिरते हैं…भेडें किसी जगह की!…सालो सड़क तो न रोको…।” बलदेव अभी भी मन का गुबार
निकाल रहा था।
“सब से बड़ा पागल तो तू ही
है। याद कर, किसी समय मैंने तुम्हें कहा था कि सड़क के बीच में बन रही यह समाधि एक
दिन लोगों की जान की दुश्मन बन जाएगी।” जैसे ही मित्र ने कहा बलदेव को याद आ गया कि बारह साल पहले
उसने समाधि पर चढ़ावा चढा कर समाधि बनाने में योगदान दिया था।
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