Sunday 18 September 2011

संतो का भोजन


बिक्रमजीत नूर
मीता भोजन के लिए बार-बार जिद कर रहा था। अंततः माँ ने उसके चपेड़ जड़ दी। वह रोता हुआ परे चला गया। उसकी माँ फिर से चूल्हे-चौंके के काम में लग गई।
आज उनके घर संतों का भोजन था। अपने सिख-सेवकों के मोह-प्यार के कारण संत हरजीत सिंह जी गाँव के गुरुद्वारे में कुछ दिनों के लिए कथा-कीर्तन करने आए हुए थे। साल-छः महीने बाद वे इधर फेरी लगाते ही थे।
यद्यपि गाँव के लोग बहुत गरीब थे, परंतु संतों के प्रति उनकी श्रद्धा असीम थी। इस लिए  लंगर-पानी की सेवा बहुत ही प्यार से करते थे। बाकायदा मुर्गा बनाया जाता। कड़ाह-प्रसाद व खीर में मेवे डाले जाते। इसकी तैयारी सुबह से ही शुरु हो जाती।
सभी घर बारी-बारी से संतों को दो वक्त का भोजन करवाते।
मीता तो अँधेरा होते ही खाने के लिए जिद करने लग पड़ा था, माँ भूख लगी है।
बेटे, भोजन तो महाराज जी को खिलाने के बाद ही मिलेगा।
चपेड़ खाने के बाद मीता फिर से माँ के पास नहीं आया था।
कथा-कीर्तन से फारग होने के पश्चात रात के लगभग ग्यारह बजे संतों ने अपने शागिर्दों सहित भोजन छका। अरदास हुई, जैकारे लगाए गए।
शेष परिवार ने ‘शीत-प्रसाद’ के रूप में भोजन किया और सो गए।
सुबह उठ कर माँ ने देखा, एक तरफ एक चारपाई पर मीता गहरी नींद में सोया हुआ था। उसकी टाँगें चारपाई से नीचे लटक रही थीं।
                             -0-