Saturday 3 September 2011

छमाहियाँ


                                                   
जसबीर ढंड

उमर चौरासी वर्ष, जर्जर काया, निगाह बस धुँधली-सी झलक दिखाई देती है। मुँह में दाँत कोई नहीं रहा। सुनाई देता है जब कोई बहुत ऊँची आवाज में बोलता है। मल-मूत्र सब बिस्तर पर ही। पता नहीं अब क्या करवाना है मुझसे? ऊपर वाला बुलाता क्यों नहीं? चार बेटे हैं मेरेअफसर हैं, कोठियों वाले भी हैं, पर मेरा कोई घर नहीं है। हर छः माह बाद मेरा ठिकाना बदल जाता है। मुझे उठाए फिरते हैं बसों, कारों, गाड़ियों में। सामान के नाम पर मेरे पास एक पुरानी अटैची है, एक बैग. एक थैला और एक लाठी है। बस यही मेरी पूँजी है, साथ लिए फिरती हूँ।
बेटों का पिता बीस साल पहले चला गया था। अच्छा रहा, नहीं तो वह भी मेरी तरह ही धक्के खाता फिरता। जैसे कागा गुलेल से चलता है, वैसे ही आजकल के लड़के बहुओं से चलते हैं। छोटे का तबादला कभी कहीं हो जाता है, कभी कहीं। एक शहर में भी वह किराए के मकान बदलता रहता है। मैं भी उसके साथ गोले की तरह उधड़ती फिरती हूँ। दूसरे सामान के साथ मुझे भी नए घर में लेजाकर रख देते हैं।
अर्ध-निद्रा की अवस्था में हूँ कि अचानक गर्मी लगने लगती है। थोड़ी देर बाद पता लगता है कि कोई कमरे में से गुज़रता हुआ पंखे के बटन पर उँगली रख गया। फिर बिजली के बड़े-बड़े बिल आने के बारे में ऊँची-ऊँची बोलने की समझ आती है।
भूख लगी है, आंतों में कुलबुली हो रही है। दलिया पता नहीं कब बनेगा? एक तो वैसे ही आवाज़ नहीं निकलती, दूसरा सुनता भी कोई नहीं। पानी भी सिरहाने पड़ा-पड़ा गरम हो जाता है। वही पी लेती हूँ दो घूँट, गला गीला हो जाता है।
लगता है यहाँ छः महीने पूरे होने वाले हैं, या हो चुके हैं। अब कौन ले जाएगा? प्रतीक्षा कर रही हूँ। भगवान करे अगली छमाही आने से पहले ही ऊपर से बुलावा आ जाए।
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2 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी की लगाई है!
यदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।

Patali-The-Village said...

बहुत सुन्दर उत्कृष्ट रचना| धन्यवाद|