Thursday, 28 April 2011
हवस
Wednesday, 20 April 2011
बौना
Monday, 11 April 2011
तकलीफ
बिक्रमजीत नूर
पत्नी दस-बारह दिन के लिए मायके चली गई थी, समस्या ही कुछ ऐसी आ गई थी। गुरदेव ने अपनी बूढ़ी माँ को गाँव से बुला लिया। वह बच्चों को संभालने के साथ-साथ रसोई का काम भी अच्छी तरह कर लेती थी।
माँ ने सारा काम भी जी-जान लगा कर किया। अपने बूढ़े व बीमार शरीर की कभी परवाह नहीं की। झाड़ू-पोंछे से लेकर बर्तन माँजने तक के सारे काम बिना गरमी की परवाह किए क्षणों में ही निपटाती रही। उसकी बस एक ही चिंता थी– बेटे को तकलीफ नहीं होनी चाहिए। यद्यपि उसे दो-तीन बार सख्त सिरदर्द व बुखार हो गया था।
गुरदेव मस्त व बेफिक्र रहा। समय ठीक-से गुजर गया। माँ का बच्चों में मन लगा रहा।
पत्नी वापस आ गई। गुरदेव जैसे उस के लिए बेताब था। पत्नी की अहमियत का पता तो उसकी गैरहाज़िरी में ही लगता है। माँ के घर में होने के बावजूद, जैसे घर में सब कुछ उथल-पुथल सा गया था। गुरदेव स्वयं शारीरिक व मानसिक रूप से अस्वस्थ-सा महसूस कर रहा था।
अब मन में प्यार के साथ-साथ बातों का भी तूफान उठ खड़ा हुआ था। परंतु घर में माँ के होते यह सब कुछ संभव नहीं था। किराए के मकान के भीड़े होने के कारण बड़ी दिक्कत थी।
दो दिन व दो रातें पत्नी से बिना ‘बोल-चाल’ के ही गुजर गईं। तीसरे दिन गुरदेव ने माँ को बड़े प्यार से कहा, “माँ, मैं तुझे गाँव ही छोड़ आता हूँ, यहाँ गरमी बहुत है। तुम्हें बहुत तकलीफ हो रही होगी।”
गुरदेव ने माँ की ओर देखा, बूढ़े चेहरे पर मस्कान फैल गई थी।
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Sunday, 3 April 2011
गरीबमार
प्रीतम बराड़ लंडे
मैले-कुचैले कपड़े। फैली हुई जट्टों वाली पगड़ी। करमा काम करवाने के लिए रोज शहर के दफ्तर जाता और लौट आता था। काम अभी नहीं बना था, न ही उम्मीद थी।
जब वह चक्कर काट-काट कर थक गया, तो उसे एक तरकीब सूझी। बाबू को बीस का नोट पकड़ा कर उसने कहा, “लो बाबू, चाय पी लेना, काम की कोई बात नहीं। जब समय मिले कर देना, कोई जल्दी नहीं है।”
ऐनक के ऊपर से चूहे की तरह देखता बाबू ‘ही-ही’ करता हुआ बोला, “रंडी चाय…एकदम रंडी।”
जट्ट ने उदास फसल जैसी साँस लेते हुए कहा, “नहीं बाबू! रंडी क्यों, हद हो गई…।” उसने बीस का एक और नोट निकाल कर बाबू की मेज पर रख दिया।
बाबू ने हैरान नजरों से करमे की ओर देखा और फिर दोनों शरीफ-से नोट अपनी पैंट की चोर-जेब में ठूँस लिए। फिर उसके हाथ बड़ी फुर्ती से फाइलें उलट-पलट करने लगे, जैसे वर्षों का काम उसने एक ही दिन में निपटाना हो।
कुछ ही देर में कागज़ तैयार कर बाबू ने करमें के हाथ में पकड़ा दिए और कहा, “लो सरदार जी, तुम भी क्या याद करोगे! बड़ी माथापच्ची करनी पड़ी है। थक गया हूँ आज तो।”
करमे ने कागज़ ज़मीन पर फेंक कर बाबू को कालर से पकड़ लिया। वह ऊँची आवाज़ में बोला, “बाबू, तुझे पता है कि सर्दियों की बर्फीली रातों में गेहूँ को पानी कैसे दिया जाता है? डीजल की कमी हो जाने पर काम छोड़कर लाइन में किस तरह नंगे पाँव…?”
काँपते हाथों से बाबू जेब से पैसे निकाल कर करमें की जेब में डालकर रिरियाया, “जाने दो सरदार जी, क्यों गरीबमार करते हो?”
“हूँह! गरीबमार!”
और करमा रुपये पगड़ी के नीचे संभालता दफतर से बाहर निकल आया। शायद गाँव को जाती आखरी बस मिल ही जाए।
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