Sunday 26 September 2010

कमानीदार चाकू

जगदीश अरमानी

शहर की हवा बड़ी खराब थी। इतनी खराब कि किसी भी वक्त कोई भी घटना घट सकती थी। आगजनी, खून-खराबा और लूटमार की घटनाएँ आम घटती थीं।

वह जब भी घर से निकलता, उसकी पत्नी उसके घर लौटने की सौ-सौ मन्नतें मानती। जब तक वह घर न लौट आता, उसकी पत्नी को चैन न पड़ता। उसका एक पैर घर के भीतर और दूसरा बाहर होता।

वह भी अब घर से बाहर निकलते हुए, अपनी जेब में कमानीदार चाकू रखता और सोचताअगर कोई बुरा आदमी मेरे काबू आ गया तो एक बार तो उसकी आँतें निकालकर रख दूँगा।

वह सोचता हुआ जा रहा था कि अचानक बाजार में एक मोड़ आने पर उसका स्कूटर किन-किन करता सड़क पर से फिसल गया।

दूसरे सम्प्रदाय के दो अधेड़ उम्र के आदमी उसकी तरफ दौड़े-दौड़े आए। वह डर गया, पर हिम्मत करके फौरन उठा। शरीर पर कई जगह आई खरोंचों की परवाह किए बिना उसने तेजी से अपना हाथ अपनी जेब में डाला। पर वहाँ कुछ नहीं था।

बेटा, चोट तो नहीं लगी?एक ने उससे पूछा।

नहीं।उसने धीरे से कहा और स्कूटर को खड़ा करके स्टार्ट करने लगा।

बेटा, तेरा चाकू।दूसरे आदमी ने कुछ दूरी पर गिरा पड़ा उसका चाकू उठाकर उसे पकड़ाते हुए कहा।

उसने एक नज़र दोनों आदमियों की तरफ देखा और नज़रें झुका कर चाकू पकड़ लिया। फिर तेजी से स्कूटर स्टार्ट करके चला गया।

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4 comments:

निर्मला कपिला said...

बहुत अच्छी लगी लघु कथा। आज के आदमी की सोच अगर ऐसी न हो तो देश दुनिया स्वरग बन जाये।बधाई।

संजय @ मो सम कौन... said...

चाकू पकड़ पाया होगा क्या?

बहुत खूबसूरत लघुकथा। हम सब पूर्वाग्रहों में जीते हैं।

RAJNISH PARIHAR said...

यही वो दर्द है जो सब को एक करता है....आखिर खून तो सबका एक जैसा है....

दीपक बाबा said...

दर्द तो तेरे सिने में चुभता है - उसकी चुभन से मैं भी दो चार होता हूँ.


अच्छी प्रस्तुति - साधुवाद.