“इसे अपना दाहिना हाथ लगाओ।”
“इस आटे के पेड़े को?”
“जी हाँ।”
“किसलिए?”
“पंडित जी बता गए हैं। आप पर ग्रहदशा चल रही है। हर रविवार आपके हाथ से गऊ को पेड़ा देना है।”
“और ले क्या गया तुझसे पंडित?”
“भला में क्या मूर्ख हूँ। केवल साढ़े बारह किलो अनाज दिया है…।”
मैं अपनी कहानी के पात्र-चित्रण में मग्न था और बिना कुछ सोचे दाहिने हाथ से पेड़े को आशीर्वाद दे दिया।
थोड़ी देर बाद गली में से ‘हाय मर गई, हाय ढा ली!’ की चीखें सुनकर जब मैं बाहर निकला तो देखा, पत्नी कीचड़ में चित्त पड़ी ‘हाय-बू’ कर रही थी।
उसे संभाल कर उठाते हुए मैंने पूछा, “क्या हो गया तुझे?”
वह मुझसे लिपटती हुई बोली, “हरामी मरखनी निकली। पेड़ा निगल कर निखसमी ने मुझे सींग दे मारा…हाय…मेरा जम्पर भी…।”
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2 comments:
ओह! बेचारी..और खिलाओ पेड़ा. :)
शायद गौ माता उसकी भावना समझ नही पायी...पर वो अब हमेशा के लिए गौ माता को याद रखेगी...
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