Monday 24 May 2010

अंधेरा






कुलजीत ग़ज़ल


उस दिन बस कुछ ज्यादा ही लेट हो गई थी। सर्दी के कारण सूरज के धुंध में छिपने से एकदम अंधेरा हो गया था। मन में डर था कि आज घर के सदस्यों ने मुझे नहीं छोड़ना। खैर! डरते-डरते अभी मैने घर के दरवाजे के भीतर पाँव रखा ही था कि सारा परिवार मेरी तरफ खा जाने वाली नज़रों से देखने लगा।

माँ मेरे पास आई और बिना कुछ कहे खींच कर ऐसा थप्पड़ मेरी गाल पर जड़ा कि मैं चकरा कर जमीन पर जा गिरी। किताबें मेरे हाथ से छूट कर जमीन पर गिर गईं। साथ खड़ा मेरा बाप भी लाल-पीला हो रहा था, आई है इस समय, क्या कहते होंगे लोग? फलां की बहन-बेटी इस समय सड़कों पर घूमती-फिरती है, शर्म नहीं आती इसे।

बता कलमुंही, तुझे हमारी इज्जत का कुछ ख्याल भी है या नहीं?माँ ने मुझे बेदर्दी से झिंझोड़ा।

भाई ने भी माथे पर सौ शिकन डाल कर मुँह फेर लिया और मैं पत्थर बनी उनके सामने निरुत्तर हो गई थी।

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3 comments:

Udan Tashtari said...

उफ्फ!!

उन्मुक्त said...

क्या कहानी पूरी हो गयी। कुछ समझ में नहीं आयी।

परमजीत सिहँ बाली said...

बिना कुछ जाने गलत मान लेना......यही समाज की सब से बड़ी कमजोरी है।

एक हकीकत ब्यान करती लघुकथा.....