अवतार सिंह कंवर
“ए सीबो, तूने मुझे बताया ही नहीं कि तेरी माँ मेले में जाएगी!”
“चाची, बस अचानक ही तैयारी हो गई। मैंने तो कहा था कि क्या लेना है मेले में, पर माँ नहीं मानी। बोली—पाँचपीरों की समाधि पर माथा टेक आऊँगी। मन्नत की थी तेरे भाई की, जब उसे मियादी बुखार हुआ था।”
“अच्छा!”
“जब मैंने कहा—माँ, भैया को तो शहर के डॉक्टर से आराम आया था, तो कहने लगी—तेरा सिर आया था! बीमारी नेमोड़ तो उसी दिन लिया, जब पीरों की मन्नत मानी।”
“सीबो, बात तो तेरी माँ की ठीक है, और मन्नत का भार भी उठाकर नहीं रखना चाहिए। जब जगीरो की बहू केबच्चा होने वाला था, उसने मन्नत मानी, लेकिन पूरा करना भूल गई। अढ़ाई महीने का होकर, लड़का मर गया।फिर रोए, मैंने तो पाँच पीरों की कड़ाही करनी थी।”
“चाची, भला हुआ क्या था लड़के को?”
चाची गला साफ करते हुए बोली, “क्या बताऊँ बेटी, सब कर्मों का खेल है! बुखार चढ़ा और ले डूबा लड़के को।”
“इलाज नहीं करवाया उन्होंने?”
“बेटी, अपनी ओर से तो कौन कसर छोड़ता है। बहुत भागदौड़ की बेचारों ने। अपने नागा साधु के पास गए–मंत्रफुंकवाया, भस्म भी लगाई। और जहाँ किसी भी सयाने का पता चला, वहीं गए। लेकिन कहीं से भी आराम नहींआया।”
“उसे किसी डॉक्टर के पास लेकर गए चाची?”
“तू तो पढ़-लिखकर भी पागल ही रही। लड़के को तो छाया थी। डॉक्टर उसमें क्या करता! कोप तो सारा मनौती काथा।”
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4 comments:
nice
अच्छी प्रस्तुति ........कुरीतियों और ढोंग की बीच नजाने कितनी जाने चली जाती है .
एक मनौती और चाहिए इस तरह के विचारो को दूर करने के लिये
सुन्दर लघुकथा
अंध विश्वास पर चोट करती लघुकथा
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