डॉ. बलदेव सिंह खहिरा
“देख बापू! मुझे आए महीना भर हो गया। सभी रिश्तेदारों से पूछ लिया है, कोई भी आप दोनों को रखने के लिए तैयार नहीं। इस वृद्धावस्था में मैं आपको अकेले इस कोठी में नहीं छोड़ सकता। आप अपना लुक आफ्टर कर ही नहीं सकते।”
माता-पिता को खामोश देखकर वह फिर बोला, “वैसे भी अगले सप्ताह इस कोठी का कब्जा देना है। मैंने सारा बंदोबस्त कर लिया है। ओल्ड एज होम वाले डेढ लाख रुपये लेते हैं, फिर सारी उम्र की देखभाल उनके जिम्मे।”
“परमिंदर! हमने अपना घर छोड़ कर वृद्ध-आश्रम में नहीं जाना। तेरी मां तो बिलकुल नहीं मानती। तू जा अमरीका। हमें अपने हाल पर छोड़ दे, हमारा वाहिगुरु है।”
“माँ! बापू! आप बच्चों की तरह जिद्द क्यों कर रहे हो? कोठी तो बिक चुकी है। अपने मन को समझाओ।” कहकर परमिन्दर अपने कमरे में चला गया।
उसी रात बापू अकाल चलाना(स्वर्ग सिधारना) कर गया।
तीन दिन बाद बापू के ‘फूल’ कीरतपुर साहिब प्रवाह करके लौटे तो रिश्तेदारों ने परमिंदर को बताया, “माँ जी तो किसी को पहचानते ही नहीं, आंगन में बैठे कोठी की तरफ ही देखते रहते हैं। शायद वे पागलपन का अवस्था में है।”
परमिन्दर के मुँह से निकला, “तो फिर पागलखाने में भर्ती करवा देते हैं। आपको नहीं पता मेरा एक-एक दिन का कितना नुकसान हो रहा है। पीछे अपने परिवार का कितना बड़ा दायित्व है मेरे सिर पर।”
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2 comments:
वाह रे यह औलाद..पैदा होते ही मर क्यूँ नहीं गई!!
आज कल के हालातो पर और आज की नयी पीड़ी का इस लघु कथा ने ,सच्चाई को ब्यान कर दिया..सच मे आज बहुत गलत दिशा मे जा रही है यह पीड़ी..आज हर कोई सिर्फ अपने सुख के बारे मे ही सोचता है....अपने बुजुर्गो पर क्या बीत रही है उसे इस की चिंता ही नही है......
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