सुधीर कुमार सुधीर
कच्चे मकानों के बीच में बनी छप्पर वाली अंधेरी कोठरी में बैठा रुलदू शराब पी रहा था। उसकी घरवाली चूल्हे के पास बैठी धुआं फांक रही थी। सात साल का बेटा सूरज माँ के पास बैठा आटे की चिड़िया बना रहा था।
रुलदू ने भीतर से आवाज दी, “रोटी-पानी तैयार किया या नहीं, जरा जल्दी कर।”
सूरज की माँ बुड़बुड़ करने लगी, “आज कई दिन बाद दिहाड़ी लगी थी, चार पैसे घर लाने की जगह, यह जहर पीने बैठ गया। सब्जी कैसे बनेगी?”
रुलदू की बोतल खाली होने को थी। सूरज उस के पास जाकर खड़ा हो गया और बोला, “बापू, जल्दी बोतल खाली कर।”
“बोतल तूने क्या करनी है रे?” रुलदू क्रोधित होते हुए बोला।
“सब्जी में डालने के लिए नमक नहीं है, दुकान पर बोतल देकर नमक लाना है।”
सूरज के इन शब्दों को सुनकर रुलदू की आँखों के आगे अंधेरा छा गया।
रुलदू की घरवाली घर में रोशनी महसूस करने लगी।
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3 comments:
काश, सब जगह इतनी सरलता से उजाला हो जाता!
घुघूती बासूती
वाह और आह !
'सूरज' लघुकथा में सूरज घर के लिए एक रोशनी बनकर आया है । शराब न जाने कितने घरों की रोशनी को निगल जाती है ।
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