
Monday, 28 December 2009
भूकंप

डा. कर्मजीत सिंह नडाला
बेटा सोलह वर्ष का हुआ तो वह उसे भी अपने साथ ले जाने लग पड़ा।
‘कैसे हाथ-पाँव टेढ़े-मेढ़े कर चौक के कोने में बैठना है, आदमी देख कैसे ढ़ीला-सा मुँह बनाना है। लोगों को बुद्धू बनाने के लिए तरस का पात्र बनकर कैसे अपनी ओर आकर्षित करना है। ऐसे बन जाओ कि सामने से गुजर रहे आदमी का दिल पिघल जाए और सिक्का उछलकर तुम्हारे कटोरे में आ गिरे।’
वह सीखता रहा और जैसा पिता कहता, वैसा बनने की कोशिश भी करता रहा। फिर एक दिन पिता ने पुत्र से कहा, “जा अब तू खुद ही भीख माँगा कर।”
पुत्र शाम को घर लौटा। आते ही उसने अपनी जेब से रुपये निकाल कर पिता की ओर बढ़ाए, “ले बापू, मेरी पहली कमाई…।”
“हैं! कंजर पहले दिन ही सौ रुपये! इतने तो कभी मैं आज तक नहीं कमा कर ला सका, तुझे कहाँ से मिल गए?”
“बस ऐसे ही बापू, मैं तुझसे आगे निकल गया।”
अरे कहीं किसी की जेब तो नहीं काट ली?”
“नहीं, बिलकुल नहीं।”
“अरे आजकल तो लोग बड़ी फटकार लगाकर भी आठ आने-रुपया बड़ी मुश्किल से देते हैं…तुझ पर किस देवता की मेहर हो गई?”
“बापू, अगर ढंग से माँगो तो लोग आप ही खुश हो कर पैसे दे देते हैं।”
“तू कौन से नए ढंग की बात करता है, कंजर! पहेलियाँ न बुझा। पुलिस की मार खुद भी खाएगा और हमें भी मरवाएगा। बेटा, अगर भीख माँग कर गुजारा हो जाए तो चोरी-चकारी की क्या जरूरत है। पल भर की आँखों की शर्म है…हमारे पुरखे भी यही कुछ करते रहे हैं, हमें भी यही करना है। हमारी नसों में भिखारियों वाला खानदानी खून है…हमारा तो यही रोजगार है, यही कारोबार है। ये खानदानी रिवायतें कभी बदली हैं? तू आदमी बन जा…।”
“बापू, आदमी बन गया हूँ, तभी कह रहा हूँ। मैने पुरानी रिवायतें तोड़ दी हैं। मैं आज राज मिस्त्री के साथ दिहाड़ी कर के आया हूँ। एक कालोनी में किसी का मकान बन रहा है। उन्होंने शाम को मुझे सौ रुपये दिए। सरदार कह रहा था, रोज आ जाया कर, सौ रुपये मिल जाया करेंगे…।”
पिता हैरान हुआ कभी बेटे की ओर देखता, कभी रुपयों की ओर। यह लड़का कैसी बातें कर रहा है! आज उसकी खानदानी रियासत में भूकंप आ गया था, जिसने सब कुछ उलट-पलट दिया था।
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Monday, 21 December 2009
दायित्व

डॉ. बलदेव सिंह खहिरा
“देख बापू! मुझे आए महीना भर हो गया। सभी रिश्तेदारों से पूछ लिया है, कोई भी आप दोनों को रखने के लिए तैयार नहीं। इस वृद्धावस्था में मैं आपको अकेले इस कोठी में नहीं छोड़ सकता। आप अपना लुक आफ्टर कर ही नहीं सकते।”
माता-पिता को खामोश देखकर वह फिर बोला, “वैसे भी अगले सप्ताह इस कोठी का कब्जा देना है। मैंने सारा बंदोबस्त कर लिया है। ओल्ड एज होम वाले डेढ लाख रुपये लेते हैं, फिर सारी उम्र की देखभाल उनके जिम्मे।”
“परमिंदर! हमने अपना घर छोड़ कर वृद्ध-आश्रम में नहीं जाना। तेरी मां तो बिलकुल नहीं मानती। तू जा अमरीका। हमें अपने हाल पर छोड़ दे, हमारा वाहिगुरु है।”
“माँ! बापू! आप बच्चों की तरह जिद्द क्यों कर रहे हो? कोठी तो बिक चुकी है। अपने मन को समझाओ।” कहकर परमिन्दर अपने कमरे में चला गया।
उसी रात बापू अकाल चलाना(स्वर्ग सिधारना) कर गया।
तीन दिन बाद बापू के ‘फूल’ कीरतपुर साहिब प्रवाह करके लौटे तो रिश्तेदारों ने परमिंदर को बताया, “माँ जी तो किसी को पहचानते ही नहीं, आंगन में बैठे कोठी की तरफ ही देखते रहते हैं। शायद वे पागलपन का अवस्था में है।”
परमिन्दर के मुँह से निकला, “तो फिर पागलखाने में भर्ती करवा देते हैं। आपको नहीं पता मेरा एक-एक दिन का कितना नुकसान हो रहा है। पीछे अपने परिवार का कितना बड़ा दायित्व है मेरे सिर पर।”
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Monday, 14 December 2009
सूरज

सुधीर कुमार सुधीर
कच्चे मकानों के बीच में बनी छप्पर वाली अंधेरी कोठरी में बैठा रुलदू शराब पी रहा था। उसकी घरवाली चूल्हे के पास बैठी धुआं फांक रही थी। सात साल का बेटा सूरज माँ के पास बैठा आटे की चिड़िया बना रहा था।
रुलदू ने भीतर से आवाज दी, “रोटी-पानी तैयार किया या नहीं, जरा जल्दी कर।”
सूरज की माँ बुड़बुड़ करने लगी, “आज कई दिन बाद दिहाड़ी लगी थी, चार पैसे घर लाने की जगह, यह जहर पीने बैठ गया। सब्जी कैसे बनेगी?”
रुलदू की बोतल खाली होने को थी। सूरज उस के पास जाकर खड़ा हो गया और बोला, “बापू, जल्दी बोतल खाली कर।”
“बोतल तूने क्या करनी है रे?” रुलदू क्रोधित होते हुए बोला।
“सब्जी में डालने के लिए नमक नहीं है, दुकान पर बोतल देकर नमक लाना है।”
सूरज के इन शब्दों को सुनकर रुलदू की आँखों के आगे अंधेरा छा गया।
रुलदू की घरवाली घर में रोशनी महसूस करने लगी।
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