Saturday 10 October 2009

एक राह और


नूर संतोखपुरी

वह मेरे आगे-आगे चली जा रही थी। गले में पड़ी हलके लाल रंग की चुनरी के दोनों छोर मेरी ओर देख कर हंस रहे थे। बालों की एक ही चोटी इस तरह गुंथी हुई थी, जैसे किसी ने बलखाती बेल कोरे सफेद कागज पर बड़ी रीझ से बनाई हो। उसके कानों की सुनहली बालियां हिलती हुई मंद-मंद मुस्करा रही थीं। उसकी चाल ऐसी थी, जैसे कोई किसी अजीब खुशबू से नहाया हुआ फूलों की घाटी में से चला जा रहा हो। मैं उसके पीछे-पीछे चलता अपने ही ख्यालों में डुबकियाँ लगाने लग पड़ा था।

वह एकदम रुक गई। मेरे कदम भी ठहर गए। शादी वालों ने चाँदनी-कनात लगा कर राह बंद किया हुआ था। दाहिनी ओर आलुओं की हरी बेलें इधर-उधर देख रही थीं। बाईं ओर खिलने की उम्र को पहुँची हरी कचनार गेहूँ के पौधे एक दूसरे से हंसी-ठट्ठा कर रहे थे। इन फसलों को कुचलकर शायद वह जाना नहीं चाहती थी। पीछे मुँह घुमा कर रोशन चेहरे वाली उस प्रौढ़ा ने मेरी ओर देखा तथा बोली, बेटा, आगे तो राह बंद है। अब क्या करें?

……मुझसे कुछ न बोला गया। मैं चुप रहा।

वह पीछे मुड़ी और साथ ही मुझे भी मुड़ने का इशारा करती हुई बोली, एक राह और भी है। मुझे पता है उस राह का। उधर से होकर हम सड़क पर पहुँच सकते हैं। तुमने भी उधर ही जाना है?

हाँ माँ जी।मैने कहा।

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2 comments:

विनोद कुमार पांडेय said...

बढ़िया लघु कथा...धन्यवाद!!!

Udan Tashtari said...

बहुत सही!