Monday, 21 September 2009

लोक लाज


बिक्रमजीत ‘नूर’


सुरजीत सिंह का अपनी पत्नी से किसी बात पर झगड़ा हो गया था। ‘तू-तू, मैं-मैं’ हुई थी। पत्नी ने ललकार कर कह दिया, पका लो रोटियाँ आज आप ही, मुझसे नहीं होता तुम्हारा ये रोज-रोज का स्यापा!

उसे एतराज था कि वह तो दिन भर रसोई में ही उलझी रहती है और पतिदेव दोनों बच्चों के साथ आराम से बैठे टी.वी. देखते रहते हैं।

सुरजीत सिंह भी आज अपनी आई पर आ गया था। उसने भी पूरे गुस्से में आकर कह दिया था, ठीक है, ज्यादा बोलने की ज़रूरत नहीं है, हमें आती है रोटी पकानी।

और वास्तव में ही दोनों बाप-बेटे रसोई में जा पहुँचे थे। पत्नी साहिबा चादर ओढ़ कर लेट गई थी। लड़की अपने ही किसी कार्य में मग्न थी।

बाहर वाला दरवाजा खुला रह गया था, इसलिए सुरजीत सिंह को पता ही न चला कि कब उसका एक घनिष्ठ मित्र रसोईघर के दरवाजे पर आ खड़ा हुआ।

क्या बात आज खुद ही हाथ जला रहे हो? भाभी जी से कहीं झगड़ा तो नहीं हो गया?

सुरजीत सिंह चौंक गया था, जैसे कोई अनहोनी हो गई हो। ‘मायके गई है, यार।’ वह अभी यह संक्षिप्त वाक्य बोल कर अपना स्पष्टीकरण देने ही वाला था कि भीतर से पत्नी ने सिर से चादर उतार यह देख लिया था कि कौन आया है। अतः सुरजीत ने कहा, बीमार है आज थोड़ी, अभी दवा लेकर आए हैं। डाक्टर ने आराम करने को कहा है।

लड़की पता नहीं कब आँख बचा कर माँ का सिर दबाने लग गई थी और पत्नी तो ऊँची-ऊँची कराहने भी लगी थी।

ठीक है भई फिर तो…, दोस्त ने कहा और जाने लगा।

बैठ यार!

नहीं, फिर आऊँगा। मित्र बाहर की ओर चल दिया।

सुरजीत सिंह ने बेटे से यह तो ऊँची आवाज में कहा, जा अंकल को दरवाजे तक छोड़ आ।लेकिन यह बात कान में ही कही कि आते वक्त दरवाजा अच्छी तरह से बंद कर आना।

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4 comments:

Varun Kumar Jaiswal said...

आपका प्रयास निः संदेह विविधता की कड़ी जोड़ने में सक्षम है |
लगातार लिखें |
धन्यवाद ||

M VERMA said...

bahut sundar
achchhi lagi

संगीता पुरी said...

आपस में कुछ भी हो .. घर की इज्‍जत तो बचानी ही चाहिए .. अच्‍छी सीख देती लघुकथा !!

सहज साहित्य said...

नूर जी ने परिवार की वास्तविक खूबसूरती लघुकथा में सुन्दर ढंग से पिरोई गई है।