Monday, 7 September 2009
नज़र और नज़र
हरभजन खेमकरनी
बड़ी कठिनाई से मीनाक्षी रेल के आरक्षित सीट वाले डिब्बे में चढ़ तो गई, लेकिन सीट मिलना तो दूर, खड़े होने के लिए भी जगह नहीं थी। राजधानी में हो रही राजनीतिक रैली में भाग लेने जा रही बे-टिकट भीड़ ने गाड़ी के आरक्षित डिब्बों पर भी कब्जा कर रखा था। छोटे बच्चे के साथ रात का सफर सुखद बनाने के लिए ही तो मीनाक्षी ने सीट आरक्षित करवाई थी। मिन्नतें करने पर भी लोग उसकी सीट खाली करने को तैयार न थे। न ही किसी को भीड़ से घबराई, गोद वाली बच्ची के रोने पर तरस आया। यह सोचकर कि अकसर मर्दाना सवारियां बच्चे पर तरस खाकर सीट छोड़ देती हैं, उसने बैठे यात्रियों के चेहरों को प्रश्नात्मक नज़र से देखा। लेकिन लंबे सफर के कारण कोई भी यात्री सीट छोड़ने को तैयार न था।
अंततः एक स्त्री ने अपने पाँवों में रखी गठरी पर बैठते हुए कहा,“ आ बेटी, यहाँ बैठकर बच्चे को दूध पिला दे। देख कैसे रो-रो कर बेहाल हो रहा है।”
सीट पर बैठकर मीनाक्षी ने दूधवाली शीशी निकालने के लिए पर्स में हाथ डाला तो परेशान हो उठी। जल्दी में शीशी घर पर ही रह गई थी। सीट की पीठ की तरफ मुँह करने जितनी जगह भी नहीं थी। अब बच्चे को अपना दूध कैसे पिलाए? उसे लग रहा था कि अधिकांश नज़रें उसी पर टिकी हुई हैं। उस की दुविधा को भाँपते हुए पास बैठी औरत ने जरा ऊँची आवाज में कहा,“ बेटी! कपड़े का पर्दा कर बच्चे को दूध पिला दे, ये लोग भी माँ का दूध पीकर ही बड़े हुए हैं।”
उसकी आवाज सुनते ही सारी नज़रें झुक गईं।
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8 comments:
सही कहा...इस बात पर कौन बुरी नजर डालेगा!
ma ka stan to mamta,sneh,lad,dular ka pratibimb hota hai.narayan narayan
“नज़र और नज़र”, एक श्रेष्ठ कथा लगी, लेखक को साधुवाद।
एक खुबसूरत रचना .........अपने भाव के कारण एक सुन्दर रचना.....
waah !
sundar vichar liye bahut achhee katha
बहुत ही सुन्दर रचना है। ये हमारे समाज की असलियत है। ऐसे कई कुंठित दिमाग हमारे आसपास मौजूद है।
I agree with Dipti
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