Tuesday, 4 August 2009
मां
गुरदीप सिंह पुरी
उस दिन मां के साथ जब मामूली–सी बात पर उसका झगड़ा हो गया तो वह बिना नाश्ता किए ही ड्यूटी पर जाने के लिए बस–अड्डे की ओर चल पड़ा । घर से निकलते वक़्त मां के यह बोल उसे ख़ंजर की तरह चुभे, “ तेरी आस में तो मैने तेरे अड़ियल और नशेबाज बाप के साथ अपनी सारी उम्र गाल दी, कि चलो बेटा बना रहे, और दुष्ट तू भी…।” मां के शेष बोल आंसूओं में भीग कर रह गए । वह जा़र–ज़ार रोने लगी।
घर से बस–अड्डे तक का सफर तय करते हुए उसे बार–बार यही ख्याल आता रहा कि वह मां के कहे बोल नहीं बल्कि मां द्वारा सृजित एक–एक अरमान को पांवों तले रौंदता चला जा रहा है । पर वह चुपचाप चलता रहा, चलता रहा।
बस–अड्डे पर पहुंचकर जब वह अपनी बस की ओर बढ़ा तो देखा, मां हाथ में रोटी वाला डिब्बा लिए उसकी बस के आगे खड़ी थी। बेटे को देखते ही मां ने रोटी वाला डिब्बा उसकी ओर बढ़ा दिया। मां के खामोश होंठ जैसे आंखों पर लग गए हों । एकाएक अनेक आंसू मां की पलकों का साथ छोड़ गए । मां को ऐसे रोते देख कर उससे एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाया गया और अगले ही पल वह मां के चरणों में था ।
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6 comments:
प्रेरक कहानी। कहानी पढ़कर मुनव्वर राणा साहब याद आये-
मेरे गुनाहों को वो इस कदर धो देती है
माँ जब गुस्सा में हो तो रो देती है
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
आपने तो रुला दिया. कम शब्दों मे बात कितनी गहरी हो सकती है ये इस कहानी की विशेषता है.
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कहानी बहुत ही मार्मिक है।
बहुत सुंदर और भावुक कथा। माँ को समझना और समझाना बहुत कठिन है।
इसे कहते हैं लघुकथा ।गुरदीप सिंह पुरी जी को बधाई !
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
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