
डॉ श्याम सुन्दर दीप्ति
“ मम्मी, मम्मी! मेरा शार्पनर कहाँ है?”
“ मौम! कुछ खाने को बना दो।”
“ मौम…”
बेटा बार-बार कुछ मांग रहा था।
“ तू आवाज देने से न हटना। तू एक ही बार नहीं मांग सकता सब कुछ। बता, क्या मौम-मौम लगा रखी है?”
वह भी परेशान थी, अपने सर्वाइकल के दर्द से और ऊपर से नौकरानी भी देर से आई थी। उसकी प्रतीक्षा कर वहआधा काम स्वयं ही निपटा चुकी थी।
“ कभी खुद भी उठना चाहिए।” उसने बेटे को जूस का गिलास देते हुए कहा।
राजेश अपने कमरे में बैठा पढ़ रहा था। वह उठ कर बेटे के कमरे में आ गया। वैसे माँ-बेटे की बातें वह वहाँ बैठा सुन ही रहा था।
कुछ देर बाद बेटा उठकर बाहर माँ के पास जाकर बोला, “ मम्मी, पापा कहते हैं…”
“ अब उन्हें क्या चाहिए? उन्हें कह रुकें पाँच मिनट, एक ही बार फ्री होकर चाय बनाऊँगी।”
“ नहीं मम्मी! पापा कहते हैं…माँ बनना आसान नहीं होता।”
“ अच्छा! अब तुम्हें पढ़ाने आ गए। क्यों? पिता बनना आसान होता है? दूसरे की तारीफ करो और अपना काम निकालो। ये नहीं कि काम में हाथ बंटा दें।” उस ने उसी रौ में बात को जारी रखा और उसकी ओर मुँह करके बोली, “ पूछना था न, माँ बनना क्यों कठिन है?”
“ पूछा था मम्मी!”
“ अच्छा तो फिर क्या जवाब मिला?”
“ पापा कहते, तुझे जन्म देने के लिए तेरी माँ का बड़ा आपरेशन हुआ,” बच्चे ने आँखें तथा हाथ फैलाकर कहा, “ मम्मी के पेट को चीरा देना पड़ा। मम्मी! पापा कहते, पता नहीं कितने टाँके लगे। बड़ी तकलीफ हुई…।”
बच्चे की बात सुन, माँ ने उसे कसकर सीने से लगा लिया।
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