अरतिंदर
संधू
राजिंदर सिंह
नौकरीपेशा आदमी था। बेटा उसका पढ़ाई में साधारण ही निकला। उसे काम में डालने हेतु
वह एक दुकान खरीदने के प्रयास में था। अंततः दलाल ने उसे एक दुकान पसंद करवा ही
दी। आज उसने राजिंदर सिंह को दुकान-मालिक से मिल कर सौदा पक्का करने के लिए बुलाया
था। दलाल के टिकाने पर वह कुछ जल्दी ही पहुँच गया। दुकान का मालिक अभी पहुँचा नहीँ
था। दलाल राजिंदर सिंह के पास दुकान मालिक की बड़ाई के पुल बाँधने लगा—‘वे तो बहुत ही ऊँचे आचरण
वाले, प्रभु के सच्चे भक्त हैं। उन के तो दर्शन करके ही मन को शांति मिल जाती है…।’
तभी वे महापुरुष
दुकान में दाखिल हुए। दूध-से सफ़ेद वस्त्र, सफ़ेद दाढ़ी, साफ रंग व गले में लटकी
कृपाण। दलाल ने इशारे से समझाया कि वह इनकी ही बात कर रहा था। राजिंदर खड़ा हो
बहुत ही श्रद्धा के साथ व झुककर उनसे मिला। वह उनसे इतना प्रभावित हुआ कि अपने
बेटे को भी उन से मिलाने के लिए बुला लिया।
फिर शुरू हुआ सौदे की
बातचीत का सिलसिला। बात दस लाख पर जा कर तय हुई। दस लाख की रकम उसकी औकात से बाहर
थी। इतनी बड़ी रकम का प्रबंध कैसे करेगा, इस बारे में वह सोच ही रहा था कि उसके
कानों में दुकान मालिक की आवाज पड़ी, “पक्के में तीन लाख से
ज्यादा नहीं होंगे। बाकी कच्चे में।”
वह नौकरीपेशा इस बात
को बिल्कुल नहीं समझा तो उसने दलाल की ओर देखा, “क्या मतलब, मैं कुछ समझा नहीं जी?” दुकान मालिक ने भी दलाल की तरफ ऐसे देखा मानो कह रहा हो, समझाओ इस बुद्धू को।
दलाल ने उसे समझाना
शुरू किया, “भोले पातशाहो! तीन लाख का तो चाहे ड्राफ्ट दे देना, चाहे चैक। पर बाकी की रकम कैश में देनी
होगी। दुकान की रजिस्टरी तीन लाख की ही होगी।”
राजिंदर सिंह हैरान
रह गया, “यानि सात लाख ब्लैक?”
दलाल तुरंत बोला, “ब्लैक नहीं सर, कच्चे! कच्चे कहते हैं। जमीन
के सौदे इसी तरह होते हैं। सारे पैसे पक्के में लेकर तो बहुत टैक्स पड़ता है।”
राजिंदर सिंह का
दिमाग घूम गया। उसे स्कूल में पढ़ा याद हो आया—‘ग्लेशियर, पहाड़ जैसे बर्फ के बड़े-बड़े खंड होते हैं, जो पानी पर तैरते रहते
हैं। ये जितने पानी के बाहर दिखाई देते हैं, उससे कहीँ अधिक पानी के भीतर होते
हैं। वे बड़े-बड़े जहाजों से टकरा कर उन्हें डुबो देने का सामर्थ्य रखते हैं।
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