Friday 25 April 2014

खोखला अभिमान



रघबीर सिंह महिमी

मेरा एक दोस्त कई वर्षों बाद मुझे गुरुद्वारे जाते हुए मिल गया। मुझे ध्यान से देखता हुआ बोला, दीदार सिंह! तुमने अभी तक अमृत नहीं छका?
नहीं।उस द्वारा अचानक सवाल पूछने से मैं शरमा गया।
तू कैसा सिक्ख है अगर अमृत ही नहीं छका? तुझे पता है जो सिक्ख अमृत नहीं छकता, गुरु गोबिंद सिंह जी उसे अपना सिक्ख नहीं मानते। वह इस लोक में भी भटकता है, परलोक में भी।
मेरी आँखों में और शर्मिंदगी छा गई।
चल छोड़ यार, यह बता कि प्रीती की शादी की कि नहीं? मैंने बात का रुख बदलने की कोशिश की।
कहाँ यार! कोई ढंग का लड़का ही नहीं मिल रहा। तू ही बता दे 'गर तेरी निगाह में है कोई। बी.ए. करके बी.एड की है उसने।
अपने बिंदर ने भी तो बी.एस.सी करके बी.एड. कर ली है। दोनों साथ पढ़ते रहे हैं, एक-दूसरे को अच्छी तरह जानते हैं और दोनों अमृतधारी हैं। विचार कर ले इस बारे।मैंने अपनी राय पेश की।
ओए, तुझे पता नहीं, हम जाट होते हैं!गुस्से में उसकी आँखों से आग की लपटें निकल रही थीं।
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Wednesday 16 April 2014

निर्मूल



दर्शन जोगा

बिशने के दोनों बेटे डेरे के आँगन में पीपल के पेड़ के नीचे चारपाई पर लेटे बिशने के पास आकर चुपचाप खड़े हो गए। बहुओं ने चारपाई के पैताने की ओर होकर बिशने के पाँव छूते हुए धीरे से कहा, मत्था टेकती हूँ, बापू जी।
बिशना चुप पड़ा रहा।
ठीक हो बापू जी?छोटी बहू बोली।
ठीक-ठूक तो ऐसा ही है भई। चार-पाँच दिन से ताप चढ़ता रहा है। रोटी भी कम ही खाता है। संतजी ने पुड़िया दी हैं, आज कुछ फर्क है,पास में बैठा संत का शागिर्द बोला, बिशन सिंह, तुम्हें लेने आए हैं।
मुझे पता है अपनी औलाद का। अब तो यहीं ठीक हूँ, जहाँ वक्त कट रहा है। बहुत हो ली।बिशना लेटे-लेटे बोला।
तुम कहते तो हो, पर बैठे अपनी अड़ी में ही हो यहाँ…छोटा बेटा बोला।
अच्छा! तुम यह कहते हो। पिछले साल मेरे पीछे रोज कंजर-कलेश होता था। यह बड़ा आकर कह गया था ‘हम तो नौकरी वाले हैं, दिन निकलते जाते हैं और सूरज छिपने पर घर मुड़ते हैं।और तूने भी तो कहा था ‘मैं अकेला हूँ, किधर-किधर जाऊँ?’ फिर मेरा तो कोई न हुआ। मेरा तो ऊपर वाला है। या फिर यह भगत है बेचारा, जिसके आसरे सुबह-शाम रोटी के दो कौर खाता हूँ…बाकी तुम दोनों को तुम्हारा हिस्सा दिया हुआ है। अपने हिस्से की जमीन मैंने डेरे के नाम करवा देनी है । तुम्हें तो कोई एतराज नहीं?बिशने ने लड़कों से पूछा।
बस यही कसर रह गई है।छोटा बेटा आक्रोश में बोला।
क्यों? हम क्या तुम्हारे बेटी-बेटे नहीं बापू जी? भगवान की कृपा से सब कुछ है। जीते रहें तुम्हारे पोते-पोतियाँ। तुम्हारे वारिस हैं। डेरों-गुरुद्वारों को तो निपूतों की जायदाद जाती है। अगर तुमने हमें जीते जी मारना है तो तुम्हारी मर्जी।बड़ी बहू बात सुनकर पूरे क्रोध में बोली।
भई सुरजीत कौर, मैंने जन्में और पाले तो जीवितों में रहने के लिए ही थे। और यह निपूतों वाली बात तुम तो आज कह रही हो, मुझे तो डेढ़ साल हो गया यहाँ सुनते को, जब से इस डेरे में चारपाई पर पड़ा दिन काट रहा हूँ।कहते हुए बिशन सिंह की आँखों के कोयों में पानी भर आया और वह लंबी आह भरकर चुप कर गया।
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Thursday 10 April 2014

समय की मार



संजीव छाबड़ा

उजागर सिंह पचहत्तर पार कर चुका था। वह पिछले दस दिनों से चारपाई पर बीमार पड़ा था। बारी का बुखार चढ़ा था। उसकी पत्नी गुरनाम कौर उसे बहुत ढाढ़स बंधाती, पर वह भीतर से टूट चुका था। पिछले पाँच-सात वर्षों से नरमे की फसल भी मर रही थी। बैंक व आढ़तियों का कर्ज सिर से ऊँचा हो गया था।
बीमार पड़ने से पहले उजागर सिंह आढ़ती राधेश्याम के पास सात-आठ बार जा आया था। परंतु आढ़ती था कि पैसे देने के नाम पर उँगली नहीं पकड़ा रहा था। गुरनाम कौर ने सुबह चूल्हा-चौके का काम निपटाया। फिर उजागर सिंह की चारपाई से उठती हुई बोली, सरदार जी, आज मैं जाती हूँ चौधरी राधेश्याम के यहाँ…आदमी के अच्छे-बुरे दिन आते रहते हैं…क्या अब हम भूखे मर जाएँ? पिछली तीन पीढ़ियों से उनके व अपने परिवार का साथ रहा है।
उजागर सिंह चाहकर भी न रोक सका।
गाँव से शहर की ओर जाती हुई गुरनाम कौर सोच रही थी उसके चार बेटे घर-परिवार वाले हो गए हैं, पर उनकी कोई बात नहीं पूछता। फिर अगले ही पल वह सोचने लगी कि वे कौनसा अपने घर में सुखी हैं। वे भी फसल न होने से कर्ज़दार हो गए हैं। फिर परिवार भी उनके बड़े है।
ऐसा सोचती हुई गुरनाम कौर चौधरी राधेश्याम की आढ़त वाली दुकान पर पहुँच गई। वहाँ उसे पता लगा कि कई दिनों से राधेश्याम दुकान पर नहीं आ रहा। उसने राधेश्याम को घर पर मिलने की सोची।
चौधरी राधेश्याम अपने ड्राइंगरूम में कुछ लोगों के बीच बैठा परेशान नज़र आ रहा था।
आ चाची!…कैसे आना हुआ?राधेश्याम ने ड्राइंगरूम से उठ बाहर आ गुरनाम कौर को प्रणाम करते हुए कहा।
पुत्तर!…तेरा चाचा बहुत बीमार है। घर के राशन-पानी व कपड़ों के लिए पाँच हजार रुपए चाहिएँ।गुरनाम कौर ने राधेश्याम की पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा।
चाची, पैसे तो है नहीं। तुझे पता ही है कि पिछले चार-पाँच साल से फसलों पर पड़ी मार करके फैक्टरी भी भुरी तरह घाटे में चली गई। फिर कुछ बड़े घर पैसे लेकर…। तू देख ही रही है, बैठक में बैठे बैंक वाले मेरे घर और फैक्टरी की कुर्की करना चाहते हैं।राधेश्याम ने गहरी-ठंडी साँस लेते हुए कहा।
गुरनाम कौर को अब अपना वजूद भारा-भारा लग रहा था।
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Thursday 3 April 2014

सवाल



महिंदर मान

मैं पहला पीरियड लगा कर सातवीं कक्षा के कमरे से बाहर निकलने ही लगा था कि दीपा मेरे पास आकर खड़ा हो गया और बोला, सर जी! मुझे आज की छुट्टी चाहिए।
क्यों? घर से आए तुझे अभी एक घंटा ही तो हुआ है!मैंने कहा।
जी, मेरी मम्मी ने शहर जाना है, जरूरी काम से। डैडी मेरे इटली गए हुए हैं। मम्मी के जाने के बाद, मेरी बहन घर पर अकेली रह जाएगी। मम्मी कहती थी, तू छुट्टी लेकर घर पर अपनी बहन के पास रहना। आजकल वक्त बहुत बुरा है। लोग दूसरे की बहन-बेटी को अपनी बहन-बेटी नहीं समझते।जवाब में दीपा ने कहा।
तेरी वही बहन, जिसने दो वर्ष पहले दसवीं कक्षा पास की है?
हाँ सर जी, वही।
दीपा को छुट्टी देने के पश्चात मन में सवाल उठता रहा अठारह वर्ष की जवान लड़की अपनी रक्षा एक छोटे-से लड़के से कैसे करवाएगी? वह अपनी रक्षा आप क्यों नहीं करती?
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