Sunday 20 February 2011

रिश्तों के अर्थ

                            
निरंजन बोहा
खद्दर के मैले कपड़ों में लिपटे अपने बापू की पगड़ी में से बाहर झाँकती लटों की ओर देखते हुए उसकी निगाहें नीची हो गईं।
ये गाँव में मेरे बापू का सीरी(बटाईदार) है।उसने दफ्तर के सहयोगियों से अपने बापू की जान-पहचान कराई। जिस बेटे को पढ़ाने के लिए उसका बाल-बाल कर्ज में डूब गया, वह उसे बाप मानने से इनकार कर रहा था।
बापू, तू कुछ तो मेरी पोजीशन का ख़याल करता। अगर ढंग के कपड़े तेरे पास नहीं हैं तो दफ्तर आने की क्या जरूरत थी?बेटे ने बापू को एक ओर लेजाते हुए झिड़का।
हूँ…तेरी पोजीशन! नौकरी लगने के बाद तू अपनी और अपनी बीवी की पोजीशन बनाने में ही लगा रहा। कभी उस कर्जे के बारे में भी सोचा है, जो तुझे पढ़ाने के लिए मैंने अपने सर चढ़ाया है…?बूढ़े बाप की आवाज में तल्खी आ गई।
शहर में रहने के लिए पोजीशन जरूरी है। तुम गाँववालों को क्या पता। जब मेरा अपना ही गुजारा नहीं होता तो तुमको कहाँ से भेजूं पौंड?बेटा अपनी असलियत पर आ गया।
तो ठीक है। अगर तुझे अपनी पोजीशन का इतना ख़याल है तो बंदा बनकर हर महीने पाँच सौ रुपये मुझे भेज दिया कर, नहीं तो मैं तेरे दफ्तर में चीख-चीख कर कहूँगा कि मैं इसका बाप हूँ और इसके लिए ही मैंने अपनी यह हालत बनाई है।
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1 comment:

RAJNISH PARIHAR said...

rishte kuchh isi tarah badlte ja rahe hai aajkal....