Friday 25 June 2010

अपनेपन का सरूर


गुरचरण चौहान



लड़की
वालों के यहाँ से सारा काम निपटा कर, मैं और मेरे मामा का बेटा जगदीप, हमारे गाँव की इस गाँव में ब्याही लड़की शरनजीत के घर की तरफ चल पड़े।
शरनजीत के घर-परिवार से हमारी लंबे समय से पटती नहीं थी। हम कई बार थाने-कचहरी जा आए थे। इसलिए मैं सुबह से, जब से बारात आई थी, दुविधा में था कि शरनजीत के घर पत्तल लेकर जाऊँ कि नहीं। बचपन में मैं और शरनजीत इकट्ठे पढ़े थे। भाई-बहनों जैसी सांझ के बारे में सोचते हुए मैंने भावुक होकर बिचोले को कह पत्तल मंगवा ली। वैसे भी आनंद-कारज के बाद हर तरफ पीने-पिलाने का दौर चल रहा था। शराब पीकर व्यक्ति अकसर दिल के पीछे लग भावुक हो जाता है।
हमें पत्तल लेकर आया देख, शरनजीत की खुशी संभाले नहीं संभलती थी। वह मुझसे मेरे घर के एक-एक सदस्य की खैर-सुख पूछती रही।
अच्छा वीर, आप बैठो, मैं अभी लाई चाय बनाकर।शरनजीत चौके की तरफ जाती बोली।
ब्याह में आने वालों को चाय नहीं पिलाते,” बाहर से आए हजूरसिंह ने हमारे साथ हाथ मिला, अंदर से बोतल मेजपर ला रखी। दारू के साथ खाने को पल भर में ही शरनजीत ने कितना-कुछ ला रखा। खाने-पीने का दौर चल पड़ा।शरनजीत हमारे पास बैठी और छोटी-छोटी बातें करने लगी। उसने बचपन की बातें छेड़ लीं। छोटी-छोटी यादें।छोटे-छोटे संबंध। अपनत्व भरी भावुक बातें। हजूरसिंह हमें लगातार पैग डाले जा रहा था।
चलते हुए हजूरसिंह नेसड़क वाला पैगकह कर एक पैग और डाल दिया।
अच्छा वीरजी, जब भी इधर आया करो, मिलकर जाया करो। आपका गाँव में लाख गिला-शिकवा हो, गाँव की बेटियाँ तो सांझी होती हैं। मुझे तो चाव चढ़ गया आपको देखकर। यह घर आपके स्वागत के लिए सदा खुला है।शरनजीत खुशी की लय में मग्न बोले जा रही थी।
सरूर गया!” गली में आकर मेरे मुँह से निकला।
हाँ! पर यह सरूर दारू से ज्यादा बहन के अपनत्व प्यार का है।मेरे दिल की बात जगदीप के मुँह से निकल गई।
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Thursday 17 June 2010

अपनी मिट्टी


निरंजन बोहा


महानगर के सरकारी दफतर में एक क्लर्क से दूसरे क्लर्क की सीट तक चक्कर काटता, सरपंच जागीर सिंह सुबह से ही परेशान था। धंसी-सी नाक वाला डीलिंग क्लर्क तो उस पर टूट ही पड़ा था, बाबा! तुझे कह तो दिया कि दो दिन बाद आना, फिर भी तू पीछा नहीं छोड़ता। गाँव में सरदार कहलाने वाला सरपंच उसके सामने बेचारा-सा बनकर रह गया था। भीड़भाड़ वाले इस महानगर में अजनबी लोगों के बीच घिरे हुए, उसे महसूस हो रहा था जैसे उसका अपना कोई अस्तित्व ही न हो।

ज्यादातर वह अपनी पंचायत के सचिव या अपने कालेज में पढ़ रहे बेटे को ही सरकारी दफ्तर के काम के लिए भेजता था। पर आज किसी खास काम के लिए उसे आप ही महानगर आना पड़ा था। इस शहर का प्रत्येक व्यक्ति उसे भाग-दौड़ में दिखाई दिया। उससे बात करने के लिए किसी के पास फुर्सत ही न थी। भीड़ में घिरे हुए भी स्वयं को अकेला महसूस करने का इतना तीव्र अहसास उसे पहले कभी नहीं हुआ था। इसलिए वह जल्दी से गाँव लौट कर अपनी खोई पहचान हासिल करना चाहता था।बस-स्टैंड को किस नंबर की बस जाएगी?उसने सड़क किनारे खड़े एक बाबू से पूछा।

आगे से पता करो।रूखा-सा जवाब पाकर, पहले से ही परेशान सरपंच और बेचैन हो उठा। आगे जाकर पूछने की हिम्मत उसमें न रही। बस की प्रतीक्षा करने की बजाय उसने रिक्शावाले को आवाज दी और बिना पैसे पूछे ही रिक्शा में बैठ गया। उसने सोचा झगड़ा करने की बजाय, रिक्शावाला जितने पैसे माँगेगा, वह दे देगा। अपने आप में खोये को पता ही न चला कि कब बस स्टैंड आ गया।

हाँ भई! कितने पैसे?उसने अपना बटुआ खोलते हुए पूछा।

पैसे रहने दो सरदार जी।रिक्शावाले ने उसका बैग उतारते हुए कहा। पराए शहर में इतने अपनत्व-भरे शब्दों की तो उसे बिल्कुल उम्मीद नहीं थी। वह आश्चर्यचकित रह गया। उसने हैरानी से रिक्शावाले की तरफ देखा। वह तो उसके गाँव का लड़का प्रीतू था जो पाँच साल पहले घर से भाग गया था।

अरे प्रीतू तू!सरपंच ने उसे बांहों में भर लिया। प्रीतू हैरान था कि गाँव में रूखे स्वभाव वाला सरदार यहाँ आकर इतना नर्म कैसे हो गया।

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Thursday 10 June 2010

साक्षरता आंदोलन


टेक ढींगरा ‘चँद’

गाँव में साक्षरता आंदोलन बड़े जोर-शोर से चल रहा था। गाँव की पंचायत ने इस संबंधी व्यापक प्रबंध किए हुए थे। गाँव में से एक जुलूस निकाला जा रहा था। जुलूस में नारे लग रहे थे।
हाली-पाली करे कमाई, साथ-साथ वह करे पढ़ाई।
आप पढ़ो, दूजों को पढ़ाओ, अनपढ़ता को जड़ से मिटाओ।
नारे लगा रहे सरपंच गुरबख्श सिंह का हाथ अचानक ऊपर उठने से रुक गया। उसने देखा कि उसके सीरी का बेटा तख्ती-बस्ता उठाए जा रहा था। उसने तुरंत आवाज लगाई, “ गोलू, किधर मुँह उठाए जा रहा है?”
गोलू सहम गया, “मैंमैं
यह क्या बकरी की तरह मैं-मैं लगाई है।सरपंच की आवाज तेज थी।
मैंमैंपढ़ने जा रहा हूँगोलू सहमा-सा बोला।
साला पढ़ने का।सरपंच ने खींचकर एक थप्पड़ गोलू के गाल पर लगाया।
गोलू के तख्ती-बस्ता गिर गए।
तुझे पता नहीं, पशु धूप में सड़ रहे हैं। उन्हें छाँव में मैं करूँगा? सरपंच गुस्से में बोला, “चल, घर जा कर पशुओं को छाँव में कर और चारा डाल।
गोलू रोता हुआ तख्ती-बस्ता उठा, घर की ओर भाग लिया।
सरपंच फिर से काफ़िले में जा जुड़ा। वह पहले से भी अधिक जोर से नारे लगाने लगा, “हाली-पाली करे कमाई, साथ-साथ वह करे पढाई।
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Thursday 3 June 2010

आराम की रोटी


जसवीर राणा


‘लगता है तीन बज चले होंगे! …सूरज भी ढल गया!…पर सरदार अब तक रोटी लेकर नहीं आया…।’ चहबच्चे की मुंडेर पर बैठे नीलू ने सूरज की ओर देखा।

एक क्षण के लिए उसके चेहरे पर अफसोस-सा पसर गया। लेकिन अगले ही पल उसे चारपाई पर पड़े बीमार बाप की बात याद आई‘नीलू बेटा! आज काम कर आ बस। ’गर न गए तो सरदार दिहाड़ी काट लेगा।…और फिर आज तू आराम की रोटी तो खा लेगा।…घर पर तो तुझे पता ही है, पूड़े पकते हैं रोज…!

बापू की बात मान कर वह सवेरे ही सरदार के खेत में आ गया था। आते ही उसने बताए अनुसार क्यारों में पानी छोड़ दिया। पानी का रास्ता बदलते-बदलते वह हाल से बेहाल हो गया। भूख से उसके पेट में चूहे दौड़ने लग गए। तीन बजने वाले हो गए, मगर अभी तक न सवेर की, न दोपहर की रोटी आई थी।

नीलू, ये ले पकड़ रोटी!

भूख का मरसिया पढ़ रहे नीलू ने सिर घुमा कर पीछे देखा, सरदार रोटी लिए खड़ा था। इससे पहले कि वह कुछ बोलता, सरदार ने फटाफट कपड़े में से दो-तीन रोटियाँ निकाली। रोटियों पर अचार रख, उसके हाथों में पटकते हुए उसने हुक्म जारी किया, कस्सी उठा और क्यारों के चारों ओर चक्कर लगा। बैठना बिलकुल नहीं।…रोटी मेंड़ पर चलते-चलते ही खा लेना।

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